मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित कथा ‘कफन’ 1936 में पहली बार प्रकाशित हुआ था। ऐसा माना जाता है कि 1936 में ¬कफ़न पहली बार पढ़ा या सुना गया था। कफ़न मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कथाओं में से एक है। इसका परिवेश उस समय का पुराना ग्रामीण भारत होते हुए भी इस कथा का एक-एक पात्र आज के समय के हिसाब से भी सही मालूम पड़ता है। इस कहानी की शुरुआत में जब लेखक इसके पात्रों से परिचित करवातें हैं; तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो ऐसे लोग तो आज भी हैं। प्रेमचंद के घीसू , माधव और बुधिया आज के इक्कीसवीं सदी के भारत में भी मौजूद है या यूं कहें कि आदर्शवादी रचनाओं के रचयिता ने अपनी प्रेरणा का स्त्रोत यथार्थवादी पात्रों को बनाया है। कहानी कि शुरुआत बुधिया के कहराने के आवाज़ से तथा घीसू एवं माधव के परस्पर वार्तालाप से होती है। बुधिया प्रसव वेदना से कराह रही है तथा ससुर और पट्टी बाहर इस इंतज़ार में बैठे हैं कि बुधिया कब दम तोड़ दे तथा दोनों चैन से सो सकें। दोनों बुझी हुई अलाव के सामने आलू पकाकर, खाकर सो जाते हैं और बुधिया के मर जाने कि प्रार्थना करते हैं। ऐसा निर्मम कोई कैसे हो सकता हैं। पर यही सत्य हैं। इस दुनिया में घीसू और माधव, पिता और पुत्र जैसे बहुत से लोग हैं, जो ठीक उसी प्रकार संवेदनहीन, निठल्ले और आलस को परम सुख समझते हैं, जैसा ये दोनों समझते हैं। प्रेमचंद ने किसानों की मेहनतकश दुनिया को घीसू और माधव जैसे लोगों कि दुनिया में तौला है। एक तरफ मेहनतकश किसान है तो दूसरी तरफ कमजोर बाप-बेटे। लेखक घीसू के मन की भावना का भी खाका खीचते हैं और पाठकों को बताते हैं कि घीसू समझता है कि मेहनत-मजदूरी करना व्यर्थ है क्योंकि मेहनतकश किसानों की स्थिति भी समान है। वह समाज के उस तबके में शामिल है जो कुछ नहीं करते पर सुख समान भोगते हैं।
फ़र्क सिर्फ इतना है कि वे मुखिया या सरदार बने नहीं घूमते। जगह-जगह अपमानित होते हैं, तब भी रोकर, प्रार्थना करके, अनुनय-विनय के साथ उन्हे भी कुछ न कुछ प्राप्त हो ही जाता है। उनकी इसी धारणा को लेखक ने कहानी के अंत में विस्तार से समझाया है। समाज इसी प्रकार दो तबकों में विभाजित है। बुधिया यदि बच्चा पैदा कर भी देती है तो घीसू इस बात पर पक्का विश्वास रखता है कि उस बच्चे के लिए सब जुगाड़ हो जाएगा। उस बच्चे का लालन-पालन भी हो जाएगा घीसू ने ठीक इसी तरह नौ बच्चे पाले हैं। जब घीसू माधव को बुधिया को देखने के लिए अंदर जाने को कहता है, तब माधव इस भय से नहीं जाता कि कहीं आलू का बाद हिस्सा उसके पिता न खा जाएं। एक वेदना से तड़पते व्यक्ति का खयाल गर्म आलू के बड़े हिस्से से कम मोल रखता है। कैसी विडम्बना है कि स्त्री को केवल सुख का साधन मान लिया गया है। बुधिया को दर्द में तड़पता हुआ छोड़ कैसे घीसू और माधव चैन से सो सकते हैं। शायद भूख और आत्म-सुख कि भावना ने उनके भीतर के इंसान को पहले ही मार दिया है।
सुबह बुधिया के मर जाने पर घीसू और माधव जमींदार के पास पहुँच जाते है तथा रो-गिड़गिड़ाकर कफ़न के लिए दो रुपया पा लेते हैं। जमींदार के रुपए प्राप्त करने के बाद उसी रुपए के दम पर गाँव के साहूकारों से भी पैसे पा लेते हैं। अजीब बात है कि कर्जे में डूबे हुए, एक घंटा काम कर तीन घंटे चिलम पीने वाले, एक मुट्ठी अन्न होने पर काम पर न जाने वाले, गाँव भर से अपमानित एवं गालियां सुनने वाले पिता एवं पुत्र की जोड़ी पर फिर भी गाँव दया दिखाता है। वसूली की उम्मीद न होने पर भी पैसे दे देता है। शायद कुछ अच्छे लोग हैं ऐसे जिनके दुनिया ऐसे ही चलती जा रही है।
पाँच रुपए प्राप्त करने के बाद दोनों कफ़न खरीदने चले जाते हैं और एक दूसरे की प्रवर्त्ति को बिना आपस में साझा किए एक भी कफ़न पसंद नहीं कर पते हैं। दोनों का हृदय पहले ही जानता था कि कफ़न तो जल ही जाएगा। दोनों मधुशाला के सामने पहुँच जाते हैं और शराब की बोतल खरीदकर पीने लगते हैं। दोनों आनंद लेने लगते हैं। बड़ी विचित्र सी बात है कि कफ़न खरीदने कि प्रक्रिया से लेकर मधुशाला में शराब पीने तक दोनों ने अपने मनोभाव एक दूसरे को नहीं बताएं। दोनों बुधिया को दुआए देते थक नहीं रहे थे। माधव नशे में इस बात से थोड़ा भयभीत तो हुआ कि ऊपर जा कर अगर उसकी पत्नी उससे कफ़न के बारे में पूछेगी तब वह क्या जवाब देगा। ऐसे में पिता एक के बाद एक उसकी शंकाएं अपने अनुभावों से दूर कर देता है। अभी माधव घीसू नहीं बना था न। घीसू कहता है कि बुधिया को कफ़न जरूर मिलेगा और कफ़न वही लोग देंगे जिन्होंने अभी पैसे दिए हैं। अर्थात घीसू को यह पता है कि दीनता के हथियार को किस तरह इस्तेमाल करना है। पिता के आश्वासन को पाकर पुत्र अपनी पत्नी को ‘स्वर्ग की रानी’ बनने का आशीर्वाद देता है। इस दावत के सामने घीसू अपनी 20 वर्षों पुरानी ठाकुर के दावत को भूल जाता है। जो कुछ बचता है उसे वह पास ही बैठे भिखारी को दान देकर दान देने वाले तबके के सुख को एक बार पा ही लेता है। भिखारी से भी अपनी पुत्रवधु को आशीष देने के लिए कहता है। फिर दोनों नाचते-गाते-झूमते नशे में वही गिर पड़ते है।
दोनों इस निश्चितता के साथ गिरे पड़े हुए हैं कि गाँव वाले बुधिया का अंतिम संस्कार खुद ही कर देंगे, कफ़न की व्यवस्था भी खुद ही कर देंगे। परंतु पाठकों के लिए यह दृश्य उनके हृदय को चीर देने वाला है। बुधिया, जो एक वर्षों तक उनकी सुख-सविधा का ध्यान रखती गई, मरने पर भी उन्हे सुख का स्वाद चखा गई
आज के आधुनिक युग के प्रत्येक युवा को अवश्य पढ़नी चाहिए। भले ही कहानी कि पृष्ठभूमि पुराने समय की है, कहानी की सीख आज के युग में भी सटीक बैठती है। यही कारण है कि यह कहानी कालजयी कहानियों में अपनी जगह बनए हुए है।
Krishna Kumari Gupta, JTO